स्वतंत्रता सेनानी - मुज़फ्फर अहमद उर्फ काका बाबू
मुज़फ्फर अहमद की पैदाइश 5 अगस्त सन् 1889 को ईस्ट बंगाल (मौजूदा बांग्लादेश) के सनद्वीप गांव (नोवाखाली) में हुई थी। आप एक गरीब घराने में पैदा हुए।
कम उम्र में ही घर की ज़िम्मेदारी के साथ ही आप पढ़ाई भी करते रहे। पढ़ाई में आपकी लगन और मेहनत देखकर टीचर भी कहते थे कि काका एक दिन स्कूल का नाम ज़रूर रोशन करेगा।
आपकी कोशिशों ने आपको पहले लेखक-वक्ता और बाद में नेता बना दिया।
आपने पहली बार सन् 1906 में बंगाल-बंटवारे से आंदोलन में क़दम रखा। उस वक्त आप इन्टर में पढ़ा करते थे। तब से ब्रिटिश हुकूमत के ख़िलाफ़ लिखना और जलसों में बोलना आपका एक आम शौक हो गया।
सन् 1916 से आप बंगाल के रिवूलूशनरी ग्रुप के साथ रहने लगे थे। सन् 1919 में रोलेक्ट एक्ट के ख़िलाफ़ आपने आंदोलन में हिस्सा लिया, गिरफ्तार भी हुए, लेकिन कम उम्र को देखते हुए वार्निंग देकर छोड़ दिये गये।
बंगाल रिव्युलूशनरी ग्रुप के मुजाहेदीन के साथ रशिया से हिजरत कर बंगाल आये कम्युनिस्ट ग्रुप के साथ आपके ताल्लुक़ात इतने बढे़ कि आप खुद भी कम्युनिस्ट ख्यालों के हो गये। बंगाल में कम्युनिस्ट आंदोलन की बुनियाद रखनेवाले काका बाबू ही थे। ब्रिटिश हुकूमत हिन्दुस्तान में किसी भी तरह कम्युनिस्ट मूवमेंट को शुरू होने से रोकना चाहती थी।
इसी वजह से मुज़फ्फर अहमद को पेशावर कांस्प्रेसी केस में फंसाकर बुरी तरह टार्चर किया गया।
आपने हिम्मत से इसका मुक़ाबला किया और जब जेल से छूटकर आये तो अपनी क़लम से अंग्रेज़ी हुकूमत की पुरज़ोर मुख़ालिफ़त की।
कलम की इसी धार ने आपको सन् 1924 में फिर जेल पहुंचा दिया, जहां से सन् 1925 में रिहा हुए।
सन् 1925 से 1927 तक आप इण्डियन नेशनल कांग्रेस के भी कई ओहदों पर रहे। आप बंगाल कांग्रेस कमेटी के सूबाई सेक्रेटरी भी रहे।
सन् 1939 में जब दूसरी जंगे-अज़ीम शुरू हुई तो आपने इस जंग के खिलाफ आंदोलन चलाया और अंग्रेज़ी हुकूमत ने गिरफ़्तार कर जेल में डाल दिया।
सन् 1941 में जेल से आपकी रिहाई हुई। सन् 1942 मंे जब कांग्रेस ने अंग्रेज़ो भारत छोड़ो आंदोलन शुरू किया, तब कम्युनिस्ट पार्टी ने इसमें शामिल होने से मनाकर दिया।
फिर भी काका बाबू कांग्रेस के इस आंदोलन में शामिल हुए और फिर जेल गये।
ब्रिटिश हुकूमत से लड़ते हुए जंगे-आज़ादी के इस सपूत ने कुल सात या आठ साल जेल में बिताया, कई बार पुलिस की मार और टार्चर भी सहा।
काका बाबू सिर्फ एक राइटर, स्वतंत्रता-संग्राम-सेनानी या कम्युनिस्ट लीडर की वजह से मशहूर नहीं थे बल्कि उन्हें आम आदमी के मददगार और उसके साथ हर दुःख में खड़े रहनेवाले इंसान के तौर पर भी लोग याद करते थे।
उन्होंने आखिरी सांस 18 दिसम्बर सन् 1973 को कलकत्ता में ली।
इतनी जंगे लड़नेवाले मुजाहिद को मुल्क आज़ाद होने के बाद भी किसी ने नहीं पूछा।
आप आख़िरी वक़्त तक लिखने-पढ़ने की आमदनी से ही अपनी ज़िन्दगी बसर करते रहे।
संदर्भ : लहू बोलता भी है
लेखक- सय्यद शहनवाज अहमद कादरी,
संकलन - अताउल्ला पठाण सर , महाराष्ट्र
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