दिपावली और बहादूर शाह जफर- Diwali and Bahadur Shah Zafar

जब बहादुरशहा के यहाँ जाती थी दिल्ली से पूजा सामग्री



यदि आप लाल किले से फतेहपुरी मस्जिद की ओर चांदनी चौक पर चलें तो टाउन हाल के बाद एक कूचा पडता है, जिसका नाम है 'कूचा काबिल अत्तार'।उसके बाद एक मुख्य कटरा उसी ओर आता है - 'कटरा नील'। पुरानी दिल्ली के कटरों में इसका बडा नाम है।कुछ पंडितों का मानना है कि इस कटरे में प्राचिनतम घंटेश्वर मंदिर है। यूं तो प्राचीन मंदिरों की कोई कमी नहीं है दिल्ली में, मगर इस मंदिर को बडे लोग मानते हैं और कहा जाता है कि वेदों और पुराणों के समय से यहां सदा से ही दिल्ली के अति प्रतिष्ठित खत्री परिवार रहते चले आए हैं।इस कटरे में एक समय था जब हर मकान हवेलीनुमा था।आज भी सेठ रायबहादुर छुन्नामल की हवेली को छोडकर बहुत सी हवेलियां इस कटरे में है।

वैसे अब यहां कपडे की मंडी बन चुकी है, मगर यह कटरा आज भी एक ऐसी दुकान के लिए जाना जाता है जो मुगलों के समय से यहां पर है और जहां से पूजा सामग्री दीपावली के अवसर पर किला-ए-मुअल्ला (लाल किल्ला) भेजी जाती।इसकी मेहंदी से बहादुरशहा जफर की पत्नी बेगम जीनत महल अपने हाथ सजाती।आजकल इस दुकान को 'सुरभि ट्रेडिंग' के नाम से जानाजाता है। मगर इसकी स्थापना मुगलों के समय में हुई और पीढी दर पीढी यह दुकान दिल्ली ही नहीं, भारत से बाहर भी लोगों को शुद्ध पूजा सामग्री और मेहंदी प्रदान करती है। हकीम मामचंद अरोडा जो इसके मालिक हैं, बताते हैं कि जो पूजा सामग्री विश्व भर में न मिले, वह यहां अवश्य मिलेगी। इसके ग्राहक भी पुश्तैनी हैं। दूसरी बात यह की जो भी यहां से मेहंदी या पूजा सामग्री ले लेता है, वह अन्य स्थान पर जाता ही नहीं।

हां, मुगल ताजदार बहादुरशाह जफर को पूजा सामग्री से क्या लेना - देना, यह जानना रोचक होगा। दरअसल मामचंद अरोडा के अनुसार बहादुरशाह जफर दीपावली के शुभ अवसर पर बडे जोर - शोर से अपने हिंदू दरबारियों के लिए पूजा का आयोजन कराते थे। दिल्ली ही नहीं, दिल्ली के बाहर दूर - दूर तक मिठाई बांटी जाती थी। हिंदू त्योहारों पर पूजा सामग्री भेजे जाने का जीता - जागता उदाहरण स्वयं मामचंद अरोडा की प्राचीन दुकान है। इस दुकान को उसी प्रकार से रखा गया है जैसे यह मुगलों के समय थी। पुरानी शीशम की लकडी की अलमारियां और दराजें अपनी कहानी स्वयं सुनाती हैं। अंग्रेजों के समय से छत पर लगा पंखा साक्षी है इस बात का की इसकी आयु पचास वर्ष से ऊपर ही है। जो स्वच्छ व खालिस पूजा सामग्री यहां उपलब्ध है वह इस प्रकार है - धूप, मौली, रोली, कमल गट्टा, सिंदूर, शहद, इत्र, चूरे वाला लाल चंदन, सफेद चंदन, पीली सरसों, करजवा, इंद्र जौ, पचमेवा, केसर, बाल छड, जायफल, सुपारी, मजीठा, आदि. मामचंद के परदादा किला-ए-मुअल्ला में यह सामग्री दीपावली, होली आदि पर्वों पर ले जाते। दीपावली के अवसर पर लाल किले के मुख्य द्वार पर उनका स्वागत दीपमाला के साथ होता था और होली के समय रंगों के फुहार के साथ। यह पूजा सामग्री वर्षों से भारत के कोने - कोने से लोग उनसे लेने आते रहे हैं। यही नहीं भारतीय प्रवासी आँस्ट्रेलिया, वेस्ट इंडिज, युरोप आदि देशों से भी कुरियर द्वारा यह सामग्री मंगाते हैं कि शुद्ध सामग्री उन्हें प्रभू के और भी निकट ले आएगी। इसका कारण यह है की मामचंद के दादा हकीम सौदागरमल अपने समय को जाने - माने हकीम थे और विश्व विख्यात हकीम अजमल खां (यूनानी हिकमत पध्दती) के साथ दिल्ली हिकमत बोर्ड में भी थे। यही नहीं, वे एक स्वतंत्रता सेनानी भी थे और हकीम अजमल खां के साथ उन्होंने अंग्रेजों के विरुद्ध आंदोलन भी छेडा। ऐसा कहा जाता है कि अंग्रेज उनकी हिकमत से प्रसन्न हो, उन्हें 'रायबहादुर की पदवी प्रदान करना चाहते थे, मगर उन्होंने साफ इन्कार कर दिया। मगर रोगी अंग्रेजों की सेवा करने से वे पीछे नहीं हटे। हकीम सौदागरमल ने लाँर्ड हार्डिंग (वायसराँय) की पुत्री के कान का दर्द उस समय अपने देसी दवाई 'रौगन - ए - तुर्क' से ठीक किया, जब इंग्लिस्तान के सभी फिरंगी से चिकित्सक अपनी अंग्रेजी दवाइयों से उसका उपचार नहीं कर सके। अंग्रेजों के ऊपर उनका सिक्का जम चुका था, मगर उनसे कोई एहसान इसके बदले सौदागरमल ने नहीं लिया। वे चाहते तो सेठ छुन्नामल की तरह ही बडी जायदाद प्राप्त कर सकते थे। मगर वे अपनी छोटी - मोटी दुकान में ही संतुष्ट थे। मामचंद का मानना है कि दुकान भले ही छोटी और प्राचीन है, मगर इसमें प्रभु की बडी बरकत है।

हकीम सौदागरमल ने अपने समय में एक कारनामा और किया, जो था मेहंदी का एक विशिष्ट नुस्खा तैयार करना। इस नुस्खे द्वारा सफेद बाल एक विशेष कत्थई रंग के हो जाते थे। इसके अतिरिक्त बालों पर लगाने जाने वाली मेहंदी सर्दियों में गर्म तासीर की होती थी और गर्मियों में प्रयोग की जाने वाली ठंडी तासीर की होती थी। इसके अतिरिक्त मौसम के अनुरुप इसमें जडी - बूटियाँ भी होती थी। सौदागरमल के पश्चात उनके पुत्र हकीम छुन्नामल अरोडा ने इस मेहंदी की चमक और गहरे रंग को और निखारा। इसका परिणाम यह निकला कि स्त्रियां तो स्त्रियां, पुरुष भी जवानी की चाहत में उनकी मेहंदी से अपने बाल रंगे लगे। पुरानी दिल्ली में जरा भी किसी के बालों में सफेदी छलकी तो उसने मामचंद की मेहंदी को प्रयोग करना आरंभ किया।कुछ लोगों ने उन्हें पुरुषों का 'शाहनाज हुसैन' (शहनाज हर्बल) कहना शुरु कर दिया है। जब उनसे पूछा गया कि मेहंदी की चमक और गहरे रंग का क्या रहस्य है ? तो वे बोले की यह तो 'टाँप सीक्रेट' है और सभी से गोपनीय रखा जाता है कि कहीं कोई इसकी नकल न बना ले। परिवार के सबसे वरिष्ठ सदस्य के पास ये नुस्खा गुप्त ताले - चाबी में रहता है। इस समय ६० वर्षीय मामचंद जी परिवार के वरिष्ठतम सदस्य हैं। इस मेहंदी के रंग की चटक और छटा काले खिजाबी रंग से कहीं बढिया दिखाई देती है।

लोगों का कहना है कि ऐसा देखा गया है कि इस मेहंदी से दुल्हनों के हाथ बडे जोरदार रचते है। अंतिम महान मुगल ताजदार बहादुरशाह जफर की पत्नी बेगम जीनत महल यही मेहंदी का प्रयोग करती थी। लाल कुआं में उन्होंने एक महल बनाया था, जिसका नाम आज भी जीनत महल है और जहां आज लडकियों का इसी नाम का स्कूल भी है। जीनत महल को मेहंदी लगाने का बडा चाव था। चूंकि वे अपने पति के साथ राज - काज में हाथ भी बंटाती थी, उन्हें बनाव श्रुंगार का समय नहीं मिलता था। समय - समय पर वे लाल कुआं के इस महल में रहने जाती थीं।मामचंद जी के परदादा के पास जीनत महल का लिखा हुआ पत्र भी है, जिसमें उनकी मेहंदी की प्रशंसा की गई है। उनके पास बहादुरशाह की सनद (मुहर) भी थी, जिसमें पूजा सामग्री की तारीफ की गयी है। मगर दो वर्ष पूर्व उनकी दुकान में चोरी हुई, जिसमें ये सभी चीजें भी गयी। मुगलों का दिया पानदान और मिर्जा फखरुं (पुत्र बहादुरशाह जफर) का कमलदान भी था।

यदि आप चांदनी चौक के बल्लीमारान और कटरा नील चौराहे पर खडे होंगे तो यह ऐतिहासिक दुकान दूर से ही अपने मेहंदी के बडे - बडे थालों के साथ दिखाई देगी, आपको जिस पर मुगलों के समय की गद्दी पर सुर्ख - ओ - सफेद बिल्कुल तुर्को जैसे मामचंद जी आपको नजर आएंगे और अपनी मेहंदी से उनके बाल उनकी ऊम्र को झुठला कर ३५ - ४० का ही आभास देते है।

मामचंद अरोडा के पास आज भी एक पत्र ऐसा हैं, जिसमें फारसी में लिखा है कि किस प्रकार बहादुरशाह जफर दीपावली को 'जश्न - ए - चिराग' के नाम से मनाते थे। मामचंद को खेद है कि आज समय बदल गया हैं। आज इन्सानी रिश्तों के स्थान पर तिजारती रिश्ते बलशाली हो गए हैं और हर एक मनुष्य पैसे की ओर भाग रहा हैं। अब पुरानी दिल्ली में भाईचारे का वह वातावरण नहीं हैं, जो शाहजहां आबादी दिल्ली में होता था। मगर मामचंद जी यह अवश्य मानते हैं कि फिर भी पुरानी दिल्ली के कुछ कटरों, दत्तों और कूचों में प्राचीन सभ्यता बाकी है, जिनमें कटरा नील एक है।

मैने दिल्ली स्थित 'कटरा नील' भी सैर की और वहां की वह पुरानी मेहंदी की दुकान के मालीक से इस बारे में पूरी जानकारी ली आज भी बादशाह बहादूरशाह जफर के जमाने की वह दुकान वहां मौजूद है और दुकान के मालिक बडे गर्व से वह पुरानी बाते बताते है।

 मुजफ्फरभाई सय्यद

 *मो. नं. ९९६०३२५०५७*

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