असरार उल-हक मजाज़- Asrar UL Hakk

आज ही के दिन 5 दिसंबर 1955 को मजाज़ की वफ़ात लख़नऊ में हुई। मशहूर गीतकार जावेद अख़्तर इनके भांजे है।




असरार उल हक़ मजाज़ की तालीम का सफ़र लखनऊ और आगरा से होते हुए अलीगढ़ विश्वविद्यालय तक पहुंचा। मुज़्तर ख़ैराबादी और उस्मान हारूनी जैसे नामचीन शायरों के परिवार से तआल्लुक़ात रखने वाले मजाज़ लखनवी में जितनी रूमानियत थी उतनी ही रूहानियत भी थी।

मजाज़ की एक मशहूर नज़्म..


शहर की रात और मैं नाशाद ओ नाकारा फिरूँ

जगमगाती जागती सड़कों पे आवारा फिरूँ

ग़ैर की बस्ती है कब तक दर-ब-दर मारा फिरूँ

ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ


झिलमिलाते क़ुमक़ुमों की राह में ज़ंजीर सी

रात के हाथों में दिन की मोहनी तस्वीर सी

मेरे सीने पर मगर रखी हुई शमशीर सी

ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ


जी में आता है ये मुर्दा चाँद तारे नोच लूँ

इस किनारे नोच लूँ और उस किनारे नोच लूँ

एक दो का ज़िक्र क्या सारे के सारे नोच लूँ

ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ


मुफ़्लिसी और ये मज़ाहिर हैं नज़र के सामने

सैकड़ों सुल्तान-ए-जाबिर हैं नज़र के सामने

सैकड़ों चंगेज़ ओ नादिर हैं नज़र के सामने

ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ


ले के इक चंगेज़ के हाथों से ख़ंजर तोड़ दूँ

ताज पर उस के दमकता है जो पत्थर तोड़ दूँ

कोई तोड़े या न तोड़े मैं ही बढ़ कर तोड़ दूँ

ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ


बढ़ के उस सभा का साज़ ओ सामाँ फूँक दूँ

उसका गुलशन फूँक दूँ उस का शबिस्ताँ फूँक दूँ

तख़्त-ए-सुल्ताँ क्या मैं सारा क़स्र-ए-सुल्ताँ फूँक दूँ

ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ



वाचा -

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